Open Access Open Access  Restricted Access Subscription Access
Open Access Open Access Open Access  Restricted Access Restricted Access Subscription Access

नज़रे शाह काज़िम कलन्दर (बानी-ए- खानकाहे काज़मिया काकोरी)


     

   Subscribe/Renew Journal


शाह काजि़म हैं मोहब्बत का जहाँ,जिन पे नाज़ाँ है रिसालत का जहाँ। उन में है नूरे अली रंगे अली,उन में रख़्ाशाँ है विलायत का जहाँ। रौज़ा-ए-पाक की पुरकैफ फज़ा,जो कि है रूह की राहत का जहाँ। क़ौल सब बार्इसे बरकत उनके,शायरी उनकी हलावत का जहाँ। शाह काजि़म के गुलफ्शाँ अल्फाज़,कल्बे इंसान की ज़ीनत का जहाँ। उन के फैज़ान से कायम है वही,आज तक उल्फत-ओ-राफत का जहाँ। है तरीक़त की यहाँ रानार्इ,और है हुस्ने शरीअत का जहाँ। खानक़ह उनकी जहाँ रन्ज मिटें,है 'सुहैल ऐसा वो रहमत का जहाँ।
User
Subscription Login to verify subscription
Notifications
Font Size

Abstract Views: 239

PDF Views: 0




  • नज़रे शाह काज़िम कलन्दर (बानी-ए- खानकाहे काज़मिया काकोरी)

Abstract Views: 239  |  PDF Views: 0

Authors

Abstract


शाह काजि़म हैं मोहब्बत का जहाँ,जिन पे नाज़ाँ है रिसालत का जहाँ। उन में है नूरे अली रंगे अली,उन में रख़्ाशाँ है विलायत का जहाँ। रौज़ा-ए-पाक की पुरकैफ फज़ा,जो कि है रूह की राहत का जहाँ। क़ौल सब बार्इसे बरकत उनके,शायरी उनकी हलावत का जहाँ। शाह काजि़म के गुलफ्शाँ अल्फाज़,कल्बे इंसान की ज़ीनत का जहाँ। उन के फैज़ान से कायम है वही,आज तक उल्फत-ओ-राफत का जहाँ। है तरीक़त की यहाँ रानार्इ,और है हुस्ने शरीअत का जहाँ। खानक़ह उनकी जहाँ रन्ज मिटें,है 'सुहैल ऐसा वो रहमत का जहाँ।